भारत का एक ऐसा मंदिर जिसे देख कर लोग कहते है यहाँ मंदिर अतीत से नहीं बल्कि भविष्य से है। बेंगलुरु से लगभग 210 किलोमीटर हलेबिदु में स्थित होयसलेश्वर मंदिर प्राचीन वास्तुकला और इंजीनिरिंग का एक विशिष्ट उदाहरण है। इस मंदिर में ऐसी कई विशेषताएं है जो अपने समय से आगे की प्रतीत होती हैं, जैसे की इसकी मूर्तियों में की जाने वाली नक्काशियाँ, ये इतनी बारीक़ है की यकीन करना मुश्किल सा हो जाता है कि कैसे प्राचीन समय में पत्थरों पर इतना बारीक़ काम करना कैसे संभव हुआ होगा।
होयसलेश्वर मंदिर, जिसे हलेबिदु मंदिर भी कहा जाता है, 12वीं सदी का एक प्रसिद्ध हिंदू मंदिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। यह भारत के कर्नाटक राज्य के एक शहर और होयसला साम्राज्य (होयसल प्राचीन दक्षिण भारत का एक राजवंश था। इसने दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक राज किया) की पूर्व राजधानी हलेबिदु में स्थित है। हेलेबिदु को मूल रूप से इसके शिलालेखों में द्वारसमुद्र कहा गया द्वारसमुद्र का वर्तमान नाम हलेबिड है, जो कर्नाटक के हसन जिले में दक्कन के पठार पर एक बहुत ही खूबसूरत जगह है। उस समय यह मंदिर एक बड़ी मानव निर्मित झील के तट पर और होयसल साम्राज्य के राजा विष्णुवर्धन द्वारा बनवाया गया था। इसका निर्माण 1121 ई. के आसपास शुरू हुआ और 1160 ई. में पूरा हुआ। इसका निर्माण होयसल राजा विष्णुवर्धन ने चोलों पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में करवाया था।
यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है लेकिन यहां भगवान विष्णु और दूसरे देवी-देवताओं की मूर्तियां भी हैं, वैष्णववाद और शक्तिवाद परंपरा के कई विषयों के साथ-साथ यहाँ जैन धर्म की छवियां भी देखने को मितली है। मंदिर सेलखड़ी पत्थर यानी सॉपस्टोन से बनवाया गया था। इसमें 11वीं से 12वीं ईशवी में निर्मित समुद्र मंथन का दृश्य भी हैं। विष्णु के वराह अवतार को मंदिर में दर्शाया गया है। इसमें शिव , विष्णु, ब्रम्हा के अलावा देवी लक्ष्मी , सरस्वती, कृष्ण , गणेश , अर्जुन और महिषासुर को मंदिर की भित्तियों पर सुंदरता से उकेरा गया है। यहां मृत्यु शैय्या पर भीष्म पितामह को भी दिखाया गया है। दो-मंदिरों वाला यह मंदिर संभवतः होयसलेश्वर और संतलेश्वर शिव लिंगों को समर्पित है, जिसका नाम शिव तत्व और शक्ति तत्व के नाम पर रखा गया है, दोनों समान हैं और अनुप्रस्थ रूप से जुड़े हुए हैं। इसके बाहर दो नंदी मंदिर हैं, जहां बैठे प्रत्येक नंदी का मुख अंदर संबंधित शिव लिंग की ओर है। मंदिर में हिंदू सूर्य देवता के लिए एक छोटा गर्भगृह शामिल है।
14वीं शताब्दी की शुरुआत में, उत्तरी भारत से दिल्ली सल्तनत की मुस्लिम सेनाओं द्वारा हलेबिदु को दो बार नष्ट करने की कोशिश की गई और लूटा गया, जिसमें यहाँ के मंदिरों को भी हानि पहुंचाई गई। होयसला साम्राज्य और इसकी राजधानी हलेबिदु पर 14वीं सदी की शुरुआत में अलाउद्दीन खिलजी की दिल्ली सेनाओं द्वारा आक्रमण किया गया, 1326 ईस्वी में ऐसा लगने लगा था की मानो बेलूर और हलेबिदु लूट और विनाश का लक्ष्य बन गए थे, सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की एक और दिल्ली सेना यहाँ हमला कर लूटपाट मचाई और यहाँ की धरोहरों को हानि पहुंचाई। इस क्षेत्र पर विजयनगर साम्राज्य ने कब्ज़ा कर लिया था। जेम्स सी. हार्ले बताते है की होयसला साम्राज्य 14वीं शताब्दी के मध्य में समाप्त हो गया, जब राजा बल्लाला तृतीय मदुरै सल्तनत (मबार सल्तनत) की मुस्लिम सेना के साथ युद्ध में मारा गया। द्वारसमुद्र और उसके मंदिर खंडहर हो गए, राजधानी छोड़ दी गई और यह स्थल तब से "हेलेबिदु" (शाब्दिक रूप से "पुरानी राजधानी) के रूप में जाना जाने लगा। 1799 में टीपू सुल्तान की हार के साथ, मैसूर औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन के प्रभाव में आ गया। उसके बाद से ही होयसलेश्वर मंदिर के खंडहर सबसे पहले सर्वेक्षण में आये, इन मंदिर के खंडहरों की 19वीं और 20वीं शताब्दी में कई बार मरम्मत और जीर्णोद्धार किया गया।
हालांकि होयसलेश्वर मंदिर की कलाकृतियाँ क्षतिग्रस्त हैं लेकिन काफी हद तक बरकरार हैं। होयसलेशवर मंदिर वास्तुशिल्प का एक बेजोड़ नमूना है जो आज भी सभी के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। यह मंदिर अपनी मूर्तियों, जटिल नक्काशी के साथ-साथ अपने इतिहास, प्रतिमा विज्ञान, उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय लिपियों की शिलालेखों के लिए उल्लेखनीय है। मंदिर की कलाकृति 12वीं शताब्दी के दक्षिण भारत में जीवन और संस्कृति की एक सचित्र वर्णन प्रदान करती है और लगभग 340 बड़ी उभरी हुई नक्काशी हिंदू धर्मशास्त्र और संबंधित किंवदंतियों को दर्शाती हैं, यहाँ के कई छोटे चित्र रामायण, महाभारत और भागवत पुराण जैसे हिंदू ग्रंथों का वर्णन करते हैं। वर्ष 2022 23 के लिए भारत की तरफ से होयसल मंदिरों को यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) ) में शामिल करने के लिए मनोनीत किया गया है।
इस मंदिर की सबसे खास बात ये है कि हर मूर्ति को एक ही पत्थर से बनाया गया है। इसके साथ ही मंदिर के अंदर पत्थर के स्तम्भों पर पाए जाने वाले गोलाकार निशान, पत्थर से बने ये स्तम्भ गोलाकार डिजाइन में हैं, जिसे हाथ से बना पाना नामुमकिन ही लगता है, ये निशान इतने सटीक है की इन्हें केवल उन्नत मशीनों से ही बनाया जा सकता है। विशेषज्ञों की माने तो ये काम मशीन के बिना संभव नहीं है और शायद आधुनिक मशीनों से भी इन 12 फीट लम्बे स्तम्भों को तराशना नामुमकिन सा है। लेकिन यह बात सोचने वाली है कि उस समय में हमारे पूर्वजों ने पत्थरों को घुमाने के लिए किस मशीन का प्रयोग किया होगा? हालांकि इस बात का कोई साबुत नहीं है कि मंदिर को बनाने में मशीनों का इस्तेमाल किया गया था। इन स्तम्भों के आलावा इस मंदिर में कई मूर्तियों में बारीक़ नक़्क़ाशीदार आभूषण है जो छोटे पत्थरों से निर्मित है और जो मुश्किल से एक इंच चौड़े है। यह कल्पना करना भी मुश्किल है की बिना किसी आधुनिक औजार या मशीन के बिना इन्हें कैसे बनाया गया है। ये उन कुछ रहस्यों में से है जिनका जवाब हम इंसानों के पास भी नहीं है, ऐसे में कई लोगों का ये भी मानना है कि यह मंदिर अतीत से नहीं बल्कि भविष्य से है।